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भोपाल के पुराने हिस्से में रहने वाला राघव जब पहली बार उस लड़की से मिला, तब उसकी उम्र सिर्फ़ चौदह साल थी।मिलना भी अजीब था – वो हक़ीक़त में नहीं, सपने में आई।रात के करीब दो बजे थे। राघव खुद को एक पुराने, काले कमरे में खड़ा पाता है।bकमरा ऐसा जैसे किसी ने बरसों से खोला ही न हो – दीवारों पर नमी, कोनों में जाले, और बीच में फर्श पर बैठी एक चौदह–पंद्रह साल की लड़की।
उसकी चोटी खुली हुई, सफेद फ्रॉक पर सूखे मिट्टी के दाग, और उसके दोनों हाथों में एक टूटी हुई गुड़िया। वो बच्चे की तरह नहीं, बड़ी औरत की तरह रो रही थी। राघव ने सपने में पूछा, “तुम कौन हो…? क्यों रो रही हो?” लड़की ने सिर उठाया, आँखें इतनी लाल मानो कई रातों से सोई ही न हो।
उसने बस इतना कहा – “तुमने ही किया था… भूल गए क्या?”
और इससे पहले कि राघव कुछ पूछता, सपना टूट गया। दिल इतनी तेज़ धड़क रहा था जैसे अभी बाहर छलाँग लगा दे।पसीने से टी-शर्ट भीग चुकी थी। उसने इसे एक अजीब खराब सपना समझकर टाल दिया। पर ये एक बार वाली बात नहीं थी। अगली रात फिर। उसके बाद फिर। फिर… हर रोज़।
हर बार वही कमरा, वही लड़की, वही रोना, वही सवाल – “तुमने ही किया था…”
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जब सपने दिन में आने लगे
शुरू में घर वालों ने ये सब सुनकर कहा, “ज़्यादा टीवी देखता है, इसलिए बेकार सपने आते हैं।” पापा ने हँसते हुए बोला, “शायद exam का stress है, बेटा। थोड़ी cricket खेला कर।” सिर्फ़ उसकी ममेरी बहन माया ने बात को हल्के में नहीं लिया। वो कॉलेज में psychology पढ़ रही थी। “कभी–कभी दिमाग़ दबे हुए डर या guilt को किसी चेहरे की शक्ल में दिखाता है,” माया ने समझाना चाहा, “हो सकता है ये कोई symbol हो…” पर राघव को डर किसी theory से कम नहीं हो रहा था।
क्योंकि कुछ ही हफ्तों में ये सपना सिर्फ़ रात का नहीं रहा। दोपहर में, पढ़ते–पढ़ते ज़रा–सी आँख लगती और वो फिर उसी कमरे में। कभी bus में झपकी आती, कभी coaching के बीच – और तुरंत वही लड़की… रोते हुए… और अब तो कभी–कभी सिर्फ़ एकदम पास आकर फुसफुसाती –
“याद नहीं… सच में?” हर बार जागने पर राघव की धड़कनें बेकाबू, सांस फूली हुई, कपड़े पसीने से भीगे हुए। अब बात सिर्फ़ डर की नहीं थी – उसे लगने लगा कि वो पागल हो रहा है।
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कॉलेज का पहला दिन – और पहली बार वो “जागते हुए” दिखी
समय बीता। साल बदलते रहे, पर लड़की की उम्र सपने में वैसी की वैसी रही। राघव अब कॉलेज में प्रवेश ले चुका था –इंदौर की एक private यूनिवर्सिटी में। पहले दिन माया उसे छोड़ने आई। Campus नया था, लॉन, फव्वारा, नई बिल्डिंग, फोटो लेने लायक सब कुछ।
Main gate के ठीक सामने students का झुंड था –admission forms, parents, excitement।
राघव भी gate की ओर बढ़ रहा था कि अचानक उसके कदम जगह पर रुक गए। भिड़ में… ठीक gate के पास… वो खड़ी थी। वही उम्र, वही सफेद कपड़े, वही खुली चोटी, बस इस बार आँसू नहीं थे। चेहरे पर हल्की–सी मुस्कान थी। सिर थोड़ा झुका कर वो सीधे राघव को देख रही थी। राघव की आवाज़ गले में फँस गई, उसने बस इतना कहा – “माया… वो… वही लड़की…”
माया ने इधर–उधर देखा, “कहाँ? किसकी बात कर रहा है?”“वो… gate के पास… सफेद कपड़े में…”
Gate के पास एक security guard, दो students, और एक चाय वाला खड़ा था। लड़की… कोई नहीं। “तू over थक गया है,” माया ने उसके कंधे पर हाथ रखा, “शुरू का दिन है, घबराहट है। अंदर जा, सब ठीक हो जाएगा।” राघव फिर से gate की तरफ़ देखता है – वो अब और पास आ चुकी थी। भीड़ किसी को नज़र नहीं आ रही, पर उसे साफ़–साफ़ दिख रही थी। और इस बार वो रो नहीं रही थी, बल्कि होंठों में बुदबुदा रही थी –
“अब तो जागते हुए भी दिख रही हूँ… फिर भी नहीं पहचानोगे?”
राघव की टाँगों से ताकत निकल गई। अगर माया ने पकड़ा न होता तो वो वहीं गिर पड़ता। उस दिन के बाद से एक बड़ा बदलाव हुआ – सपने बंद हो गए। पर लड़की… दिन में दिखने लगी।
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नज़रों के सामने भूत – और किसी और को दिखाई ही नहीं देता
कभी library के कोने में बैठी दिखती, कभी कैंटीन की भीड़ में, कभी hostel की balcony के सामने
छत पर खड़ी। हर बार बस उसी को देखती रहती। दो–तीन बार उसने दोस्तों से भी पूछा, “जिस corner में वो लड़की बैठी है, तुम लोग उसे देख पा रहे हो?”
दोस्तों ने हँसते हुए कहा, “कौन लड़की? तू तो सच में भूत–प्रेत पकड़ने लगा है।” धीरे–धीरे उसका मज़ाक बनने लगा। किसी ने उसे “भूत बाबा” कहा, कोई “दूसरा जन्म वाला भाई” बुलाने लगा। राघव outer से normal behave करने लगा, पर अंदर से वो टूटने लगा। अकेले में वह लड़की से चिल्लाकर बोलता – “कौन हो तुम? मुझसे क्या चाहती हो? क्यों पीछा कर रही हो?”
और हर बार वो सिर्फ़ हल्की मुस्कान के साथ मुँह में कुछ बड़बड़ाती रहती – जैसे किसी language में बोल रही हो जो अब किसी को याद ही नहीं।
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रीना – राघव की ज़िंदगी में पहली रोशनी
इन्हीं सालों में राघव की मुलाकात हुई रीना से। रीना उसकी जूनियर थी – hindi literature पढ़ती थी, और कॉलेज की नाटक टीम में लीड actress थी। एक दिन rehearsal के बाद जब सभी स्टेज से नीचे उतर रहे थे, रीना ने casually पूछा – “सुनो… तुम हमेशा इतने खोए–खोए क्यों रहते हो?” हर बार सबने मज़ाक उड़ाया था, पर पहली बार किसी ने “मज़ाक के बिना” पूछा था।
शुरू में राघव ने टाल दिया। पर धीरे–धीरे talks, chai, library, long walks के बीच वो रीना के करीब आता गया। रीना बहुत grounded थी, सीधी पर बहुत strong।कुछ महीनों बाद दोनों के बीच चीज़ें friendship से आगे बढ़ गईं। राघव ने ठान लिया – “ये अकेली लड़की है जिसे मैं खोना नहीं चाहता। अपने पागलपन वाली बात इसे कभी नहीं बताऊँगा।”
शायद इसी डर की वजह से उसने दस साल तक उस भूतिया लड़की का नाम रीना के सामने नहीं लिया।
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engagement, फिर भी डर का अंत नहीं
दिन, महीने और मौसम बदलते गए। कैलेंडर के पन्ने पता ही नहीं चला कब पलटते चले गए। राघव की नौकरी पुणे के एक call center में लग गई। रीना दिल्ली में content writer बन गई। जगह अलग, पर रिश्ता मजबूत।
जगहें अलग थीं, पर रोज़ की chat, video call और छोटी–छोटी लड़ाइयाँ उनके रिश्ते को और मजबूत करती जा रही थीं।
आख़िरकार दोनों परिवार राज़ी हुए। सगाई हुई। शादी की तारीख़ fix हुई – अगस्त 2019। सगाई के बाद रीना ने कहा, “शादी से पहले कहीं घूमने चलते हैं, बस हम दोनों। फिर ज़िंदगी भर शायद अकेले travel का chance न मिले।”
राघव ने सोचा – “शायद scenery बदलने से ये सब डर भी थोड़ा कम हो।” उन्होंने मसूरी जाने का plan बनाया। और यहीं उस कहानी का सबसे खतरनाक हिस्सा शुरू हुआ।
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माल रोड, पहाड़ी और पहली बार उसकी आवाज़
मसूरी में पहले दो दिन एकदम normal रहे। Mall road, cafe, पुराने चर्च, मॉल रोड की भीड़, चौक से दिखता दूर का देहरादून। तीसरे दिन शाम को दोनों एक ऊँची पहाड़ी की तरफ जा रहे थे जहाँ से sunset का बहुत खूबसूरत नज़ारा दिखता था। राघव ने camera, और रीना ने एक छोटा binocular लिया हुआ था। रास्ते में उन्हें एक family नीचे उतरती दिखी – शायद चार–पाँच लोग, parents, दादी, दो बच्चे। और उनके ठीक आगे धीरे–धीरे उतरती हुई एक लड़की। राघव वहीं जम गया। वही उम्र। वही चोटी। वही सफेद dress।
बस इस बार वो न रो रही थी, न बस दूर से देख रही थी। इस बार उसके चेहरे पर एक अजीब–सी संतुष्टि थी – जैसे वो कह रही हो “आख़िर मिल ही गए।” उतरते–उतरते वो family और वो लड़की उनके बेहद करीब आ गए। जैसे ही वे लोग पास से गुज़रे, लड़की ने एकदम casually राघव के हाथ से binocular गिरते हुए पकड़ा, मुस्कुरा कर कहा –
“ये आपका गिर गया था… संभाल कर रखिए… ऊपर से बहुत कुछ दिखता है।”
उसकी आवाज़ वैसी नहीं थी जैसी सपने में…लेकिन इतनी जानी–पहचानी कि राघव का पूरा शरीर काँप उठा। रीना ने सिर्फ़ family को देखा, दो बच्चे, एक दादी, एक जोड़ा। उसके हिसाब से कोई extra लड़की थी ही नहीं।
“देखा?” राघव almost चीख पड़ा, “यही है… वही लड़की… जो मुझे बचपन से दिखाई देती है…” रीना ने चौंककर कहा, “कौन? वहाँ तो बस एक family थी… दो बच्चे… बस…” “सफेद dress में जो लड़की थी… जिसने binocular पकड़ाया…” l“तुम पागल हो गए हो क्या? कोई लड़की नहीं थी वहाँ। तुम फिर वही… वही…”
रीना के वाक्य टूट गए। उसके चेहरे पर डर और ग़ुस्सा दोनों साफ़–साफ़ दिख रहे थे। नीचे उतरकर वे एक पत्थर पर बैठ गए। पहली बार राघव ने सारी बातें शुरू से लेकर आज तक रीना को बता दीं – सपने, रोती हुई लड़की, माया, college gate, daytime visions… सब। रीना पहले तो सुनकर गुस्से में थी कि “तुमने ये सब मुझसे छुपाया क्यूँ?” लेकिन बाद में उसने माया से बात की, उससे सब detail में सुना।
अब कम से कम उसे ये यकीन हो गया कि ये कोई “नया ड्रामा” नहीं, बहुत पुराने समय से चल रही चीज़ है। लेकिन विश्वास डर बन सकता है, सुकून नहीं। उस रात दोनों कम बोलते रहे। दोनों के बीच एक पतली–सी अदृश्य दीवार खिंच गई थी।
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आखिरी सपना – पिछला जन्म दिखाई दिया
उस रात राघव कई दिनों बाद बहुत गहरी नींद में चला गया।और जैसे ही वो सोया, वो फिर उसी कमरे में था – पुराना, नम, टपकती दीवारें। पर इस बार लड़की जमीन पर नहीं बैठी थी। वो खिड़की के पास खड़ी थी, पीठ घुमाए। बाहर से तूफ़ान की आवाज़ आ रही थी। ऊपर बिजली कड़क रही थी।
“काफी भाग लिए न…?” उसने बिना मुड़े कहा, “अब देख लो जो देखना नहीं चाहते थे…”
कमरा अंधेरा हो गया। जैसे कोई projector चालू हो गया हो। दीवारों पर पुराने ज़माने की तस्वीरें उभरने लगीं। एक बड़ा बंगला – लकड़ी की खिड़कियाँ, लाल टाइलों वाली छत, सफेद ambassador कार। आँगन में एक आदमी खड़ा था। काला कोट, मोटी मूँछें, आँखों में अजीब लालच। बगल में एक औरत, साड़ी में, और वही… चोटी वाली छोटी लड़की मिट्टी में कुछ बना रही थी।
“देख रहे हो…?” वो लड़की धीरे से बोली, “ये शहर कलकत्ता है… साल 1979। ये घर हमारा है। ये औरत मेरी माँ है… और वो आदमी…” तस्वीर zoom हुई। उस आदमी का चेहरा साफ़ दिखाई देने लगा। राघव के गले में कठोर गाँठ सी पड़ गई। वो चेहरा…जवानी, मूँछ, अलग बालों का स्टाइल पर आँखें, भौंहें, जबड़ा… सबकुछ उस जैसा। “ये… मैं हूँ…?”
राघव की आवाज़ काँप रही थी। लड़की अब उसकी तरफ मुड़ी। अब उसकी आँखों में आँसू नहीं थे। उनमें एक भयानक शांति थी। “हाँ,” उसने धीरे से कहा, “पिछले जन्म में तुम मेरे पिता थे। तुमने औरत से नफरत की, उनकी ज़मीन, पैसे, घर सब अपने नाम करने के लिए पहले माँ को ज़हर दिया… फिर मुझे सीढ़ियों से धक्का दे दिया।” तस्वीर में
छोटी लड़की सीढ़ी के पास खड़ी थी। आदमी चिल्ला कर उसे बुलाता है। उसके हाथ में कागज़ की फाइल है। “बस sign कर दे, नहीं तो…”, वो औरत से कहता है। औरत रोते हुए मना करती है। छोटी लड़की आगे बढ़ती है, “बाबा, माँ को मत मारो…” अगले ही पल आदमी का धक्का, सीढ़ियों से गिरते कदम, चीख, और सब ख़त्म। कमरे में गूँजती आवाज़ें अब भी सुनाई दे रही थीं।
राघव वहीं घुटनों के बल गिर गया। आँसू अपने आप निकलने लगे। “मैं… मैं ऐसा नहीं हो सकता… मैंने क्यों…?” लड़की ने एक साँस ली, “तुम हो। तुम्हारे अंदर की वही आत्मा आज भी है। तुम बस भूल गए थे। इस जन्म में तुम भूल कर नया जीवन जी रहे थे… और मैं… मैं फँसी रह गई… तुम्हारे पाप के साथ, तुम्हारी अधूरी यादों के साथ।” “तो तुम मुझे सज़ा देने आई हो?” राघव ने फफकते हुए कहा। “नहीं,” लड़की की आँखें पहली बार नरम हुईं,
“कर्म अपनी जगह है, पर मेरी तलवार याद नहीं… बंदिश थी। जब तक तुम खुद याद न करो, मैं न पूरी तरह जा सकती थी, न तुम्हें छोड़ सकती थी। आज… तुमने सब देख लिया। अब फँसी मैं नहीं हूँ… फँसे तुम हो।”
“मतलब…?”
राघव ने डरते हुए पूछा। लड़की मुस्कुराई, वो मासूम मुस्कान नहीं थी – किसी बहुत पुराने हिसाब के पूरे होने की मुस्कान थी। “अब तुम दो जिंदगियों की memory लेकर जियो। खुद को माफ कर पाओ तो ठीक… नहीं तो हर रात यही देखोगे। मैं तो जा रही हूँ… तुम्हारे लिए ये बस शुरुआत है।” कमरा अचानक से टूटने लगा। दीवारों की नमी धूल बन गई, छत गायब, जमीन पिघलने लगी। आखिरी बार लड़की का चेहरा पास आया।
“अब मैं तुम्हारे सपनों में नहीं आऊँगी, बाबा। अब तुम्हें अपने आप से डरना होगा।” अगले ही पल सब काला।
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जागना – पर राहत नहीं, नई सज़ा
राघव चीखते हुए उठ बैठा। मसूरी वाले कमरे में अंधेरा था।सिर्फ़ पर्दों के बीच से हल्की चाँदनी अंदर आ रही थी। रीना उसके पास ही सोई थी, पर उसकी नींद टूट चुकी थी। वो भी shock में उसे देख रही थी। “क्या हुआ?” राघव की आँखें लाल, साँसें तेज़, शरीर काँप रहा था। उसने बहुत धीमी आवाज़ में कहा, “मैं… मैं अच्छा इंसान नहीं हूँ, रीना… कम से कम… कभी था नहीं…” और फिर, टूटी–फूटी तरह से उसने अपने सपने की बातें बताईं।
पिछले जन्म के पिता, क़त्ल, लोभ, सब। रीना कुछ देर तक पत्थर की मूर्ति की तरह बैठी रही। फिर धीरे बोली, “पिछला जन्म सच हो या नहीं, ये मैं नहीं जानती… पर आज तुम जो हो, उसी से तो शादी करनी है ना…” उसके शब्द दिलासा देने वाले थे, पर आँखों में हल्का सा डर अब भी था।जो वो छुपाने की कोशिश कर रही थी।
उस रात दोनों जागते रहे। किसी ने दोबारा सोने की कोशिश नहीं की।
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आख़िरी मोड़ – वो तो चली गई, पर डर नहीं
मसूरी से लौटने के बाद एक अजीब–सी चीज़ हुई। वो लड़की फिर कभी नहीं दिखी। न सपने में, न सड़कों पर, न भीड़ में। राघव को राहत भी मिली और खालीपन भी। पर उसके nightmares अब बदल चुके थे। अब उसे रात में कोई भूत नहीं डराता था, बल्कि वो खुद – अपने पुराने जन्म की आँखों से खुद को ही देखता था। वो आदमी, जिसने लालच में अपनी पत्नी और बेटी को मार दिया था,वो अब “कोई और” नहीं था। उसे पता था – वो खुद था।
वो अक्सर आईने में खुद को लंबे समय तक घूरता रहता।कभी अपने गुस्से से डर जाता, कभी खुद से नफरत करने लगता। रीना उससे बहुत प्यार करती थी, पर अब जब भी वह उसे सफेद dress वाली छोटी लड़कियों के पास देखती, थोड़ा–सा डर उसके दिल में चुभ ही जाता।
शादी की तारीख़ बदल दी गई। कोई जल्दी नहीं थी अब।
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तुमने क्या देखा – भूत या अपना ही चेहरा?
कहानी यहाँ खत्म नहीं होती। ये तो बस वो हिस्सा है जो राघव ने रीना को बताया, फिर उसने माया को, फिर धीरे–धीरे ये कहानी दो–चार और जगह फैल गई। आज भी राघव मुंबई के एक call center में काम करता है। उम्र 32 के आसपास, ऊपर से normal ज़िंदगी।
पर कुछ लोगों ने बताया है – रात के समय जब ज़्यादातर लोग office से चले जाते हैं, राघव अकेला cabin में बैठा रहता है, किसी पुरानी file को घूरते हुए… या अपने हाथों को ऐसे स्टडी करता है, जैसे पूछ रहा हो –
“इन हाथों ने… किस–किस को मारा था?”
कुछ लोग कहते हैं, उन्होंने उसे office की खाली balcony में खड़े देखा है जहाँ वो धीरे–धीरे अपने आप से बातें कर रहा होता है – “तू सही था या मैं…? तू पिता था या मैं…? गुनाह किसने किया…?”
अब उसके सपनों में कोई लड़की नहीं आती। अब उसमें वो खुद आता है – पिता की शक्ल में। कभी–कभी उसका मन करता है कि अपनी कहानी किसी psychiatrist को बता दे, या किसी बाबा–मौलवी–पंडित से मिले… पर हर बार एक बात याद आ जाती है – “अब तुझे खुद से डरना है।” और शायद यही उसकी असली सज़ा है। भूत से ज़्यादा खतरनाक डर शायद वही होता है जब तुम्हें पता चल जाए कि सबसे बड़ा राक्षस तुम्हारे बाहर नहीं, तुम्हारे अंदर बैठा है।
