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| बस एक बार पास आओ… फिर कभी मत जाना |
प्रस्तावना – शहर के बीचों-बीच दफन एक राज़
पुराने शहरों में बहुत–सी इमारतें ऐसी होती हैं जो बाहर से बिलकुल साधारण लगती हैं, पर उनके कमरों, खिड़कियों और दीवारों के अंदर सालों से दफ़्न कहानियाँ सो रही होती हैं। ऐसी ही एक जगह थी – “शांति निवास गेस्ट हाउस”
नाम बहुत शांति वाला, पर इसके पीछे का हिस्सा सीधे एक पुराने, टूटे–फूटे कब्रिस्तान से सटा हुआ था। ज्यादातर कमरे सड़क की तरफ थे, पर एक कमरा… पीछे की ओर खुलता था – कमरा नंबर 17
उसकी खिड़की खोलो तो सामने दूर तक फैली पुरानी कब्रें, तिरछी पड़ी हुई संगमरमर की पट्टियाँ, सूखे पेड़ और शाम की अजीब चुप्पी दिखाई देती थी। इस कमरे के बारे में गेस्ट हाउस के मैनेजर की एक ही सख्त चेतावनी थी – “शाम के बाद खिड़की मत खोलिए, और खुले बालों के साथ खिड़की के सामने तो कभी मत खड़े होइए, मैडम।”
कई लोग ये बात सुनकर हँस देते… कुछ डर जाते… और कुछ, बिलकुल नज़रअंदाज़ कर देते।
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सालों से आते-जाते मेहमान – और एक आदमी जिसे डर नहीं लगता था
दीपक मेहरोत्रा कोलकाता की एक कंपनी में senior engineer थे। उनका काम ऐसा था कि उन्हें महीने में दो–तीन बार शांति निवास गेस्ट हाउस में रुकना पड़ता। कंपनी ने default से यहीं कमरा fix कर दिया था – हर बार वही गेस्ट हाउस, वही staff, और… वही कमरा, रूम नंबर – 17
दीपक का nature practical था। उन्हें भूत–प्रेत, आत्मा, जिन–पिशाच पर ज़रा भी विश्वास नहीं था। खिड़की खोलते, कब्रिस्तान देखते, हल्की स्माइल के साथ कह देते – “ये सब बस मौत की याद दिलाते हैं, डरने जैसी कोई बात नहीं।” मैनेजर हर बार routine में बोल देता – “सर, शाम को खिड़की बंद रखिए…”
दीपक हर बार हँसकर टाल देते – “इतने साल में आज तक कुछ नहीं हुआ भाई, अब क्या हो जाएगा?” हाँ, एक अजीब बात उन्हें कभी–कभी महसूस होती थी – आधी रात में हल्की–सी फुसफुसाहट, जैसे कोई उनके नाम के पहले अक्षर को बहुत धीरे से खींचकर बोल रहा हो – “दीईई… प… क…”
दीपक उठकर चारों तरफ देखते, टीवी बंद, पंखा चलता, कपड़े कुर्सी पर, सब normal। उन्होंने सोचा – “शायद थकान का mind-game होगा।” और सालों तक उन्होंने इस बात को serious नहीं लिया।
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पहली बार परिवार के साथ – गेस्ट हाउस की uneasy मुस्कान
जनवरी की ठंडी वाले एक महीने में दीपक को अचानक ऑफिस से call आया – “दो दिन के लिए urgently प्लांट जाना है, रिपोर्ट finalize करनी है।” इस बार उन्होंने सोचा, wife और बच्चे को भी साथ ले चलते हैं। नीरा – उनकी wife, और पांच साल की बेटी रिषा पहली बार उनके साथ outstation जा रही थीं। शहर से बाहर निकलते वक्त नीरा ने मज़ाक में कहा, “सुना है तुम्हारा guest house कब्रिस्तान के बगल में है?”
दीपक हँस पड़े, “अरे हाँ, है तो… लेकिन मैं इतने साल से जा रहा हूँ, आज तक ना भूत मिला, ना discount।” शाम तक वे शांति निवास गेस्ट हाउस पहुँच गए। मैनेजर ने दीपक को देखा, तो चेहरे पर usual मुस्कान आ गई, पर जब उसने देखा कि इस बार वे परिवार के साथ हैं – उसकी मुस्कान एक सेकंड के लिए हिल गई। “आप आ गए, सर… welcome… आपके लिए वही कमरा ready है।”
फिर उसने नीरा की तरफ देखकर थोड़ी संकोच भरी आवाज़ में कहा “मैडम, अगर आप चाहें तो हम आपको आगे वाला कमरा दे सकते हैं, पीछे वाला कमरा… थोड़ा…” दीपक हँसकर बोल पड़े, “फिर से वही पुरानी कहानी? मुझे room 17 ही दीजिए, मैं उसी में आराम से सोता हूँ।” मैनेजर दो पल के लिए चुप रहा। आख़िर में उसने keys दे दीं। पर जाते–जाते नीरा के क़रीब आकर धीरे से बोला –
“मैडम, आप एक बात मानिएगा… शाम के बाद खिड़की मत खोलिएगा। और… खुले बालों के साथ उस खिड़की के सामने बिल्कुल मत रुकिएगा। वादा कीजिए।” नीरा को थोड़ा अजीब लगा, पर नीरा ने हाँ में सिर हिला दिया – “ठीक है, नहीं खोलूँगी।” उन्हें क्या पता, अब उनके हाथ में कुछ भी नहीं रहने वाला था।
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कब्रिस्तान का नज़ारा – और पहली गलती
कमरा 17 simple सा था – दो single bed आपस में लगे हुए, एक छोटी table, almirah, corner में washbasin और पीछे की दीवार पर एक बड़ी–सी खिड़की – जिस पर मोटे गहरे रंग के पर्दे लगे थे। रिषा दौड़ती–फिरती कमरे में घूमने लगी। नीरा ने कपड़े अलमारी में टंगे। दीपक थोड़ी देर आराम करके site visit के लिए निकल गए।
“तुम लोग आराम करो, मैं दो–तीन घंटे में लौटता हूँ,” कहकर वे बाहर चले गए। नीरा ने नहाने का सोचा। उसने रिषा को bed पर बैठाकर उसे mobile में cartoon लगा दिए और खुद washroom में चली गईं। नहाकर बाहर निकलीं, बाल भीगे हुए, और कमरे में हल्की सी नमी–सी महक। उन्हें अचानक महसूस हुआ
कमरे में घुटन है – उन्होंने कहा, “ज़रा खिड़की खोल दूँ,
ताज़ी हवा आ जाएगी।” दिमाग के पीछे मैनेजर की बात थोड़ी सी उठी – “शाम के बाद खिड़की मत खोलिए…” पर उन्होंने घड़ी देखी, साढ़े चार बज रहे थे। “अभी तो पाँच भी नहीं हुए…” सोचकर उन्होंने परदे हटाए और खिड़की खोल दी। ठंडी हवा का झोंका उनके चेहरे और बालों से टकराया। एक पल के लिए अच्छा लगा।
पर जैसे ही उनकी नज़र खिड़की से बाहर गई – उनके हाथ की नसें जैसे सख़्त हो गईं। जहाँ तक नज़र जा रही थी, बस कब्रें ही कब्रें। कहीं थोड़ी–सी ऊपर उठी पट्टियाँ, कहीं नाम मिट चुके, कहीं आधी टूटी हुई शिलालेख, कहीं पुराने सूखे फूल, कहीं झुके हुए cross। एक दो जगह किसी की जली हुई मोमबत्तियों का काला निशान।
ठंडी हवा, शाम का हिलता हुआ आकाश, और बीच में फैला हुआ मौत का समंदर। नीरा ने घबराकर फ़ौरन खिड़की बंद कर दी, पर्दा गिराया और तेज़ कदमों से bed पर वापस जा बैठीं। रिषा ने पूछा, “मम्मी, बाहर क्या था?” नीरा ने जबरन मुस्कुराकर कहा, “बस… पुराना बगीचा था।” दिल की धड़कन अभी भी normal नहीं हुई थी।
उन्हें एक बात याद आई – हां, उनके बाल खुले थे और वे खिड़की के सामने कम से कम आधा मिनट या ज़्यादा खड़ी रही थीं। वे इस बात को दिमाग से झटकना चाहती थीं। पर दिमाग… झटकने नहीं दे रहा था।
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वो रात – जब बाल हवा में नहीं, किसी और के हाथ में थे
रात को दीपक लौटे तो नीरा ने उन्हें पूरा scene बताया। दीपक ने हँसकर कहा, “मैं तो हर बार इस कब्रिस्तान के सामने वाला कमरा लेता हूँ। कभी कुछ नहीं हुआ। तुम भी ज़्यादा सोच रही हो।” नीरा ने डर के बावजूद खुद को समझा लिया – “चलो, सुबह तक ठीक रहेगा… एक रात की ही तो बात है।” रिषा थोड़ी देर खेलते–खेलते थक गई और सो गई।
कमरे की main light बंद, सिर्फ़ छोटी night lamp जल रही थी। बाहर हवा का हल्का शोर, कभी–कभी कुत्तों के भौंकने की आवाज़, और दूर कहीं से आती ट्रेन की सीटी। करीब ग्यारह बजे तीनों सो चुके थे। नीरा को लगा कोई उनके बालों को हल्के से सहला रहा है। नीरा ने सोचा दीपक होंगे। घबराहट में भी उन्हें थोड़ा अच्छा–सा लगा…फिर… वही हाथ थोड़ा ज़ोर से बाल खींचने लगे। अब दर्द हुआ। नीरा जब आँखें खोलीं।
कमरे में हल्का पीला light, दीपक उनकी बगल में गहरी नींद में। रिषा दूसरे bed पर। पर नीरा के बाल… सीधे ऊपर की ओर तने हुए थे, जैसे किसी ने उसे ऊपर से पकड़ रखा हो। नीरा का गला सूख गया। वे चिल्लाना चाहती थीं, पर आवाज़ नहीं निकल रही थी। नीरा के बाल धीरे–धीरे खिंचते हुए खिड़की की तरफ बढ़ने लगे।
ऐसा लग रहा था उनके बालों की जड़ों में कोई हुक फंसा हो और कोई उन्हें खिड़की की ओर घसीट रहा हो। वे खुद resist कर रही थीं, bed के corner को पकड़ रखा था, पर धीमे–धीमे उनका शरीर भी खिसकने लगा। नीरा की आँखों के आगे खिड़की का पर्दा दिखाई दे रहा था, जो हल्का–हल्का हिल रहा था, जैसे उसके दूसरी तरफ़ कोई ज़ोर से सांस ले रहा हो। आख़िरकार नीरा के गले से टूटी–फूटी चीख निकली – “दी… पक…! बचाओ…”
दीपक की नींद टूट गई। दीपक ने देखा कि– नीरा के खुले बाल चोट खाए साँप की तरह हवा में तने हुए, उसके चेहरे पर भय, हाथ से bed पकड़ रखा, और पूरा शरीर खिड़की की तरफ घिसट रहा है। दीपक के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। ये कोई सपना नहीं था।
दीपक ने झटके से नीरा के हाथ पकड़े, अपने पूरे ज़ोर से उन्हें पीछे खींचने लगे। पर उन्हें ऐसा लगा जैसे वे किसी इंसान को नहीं, पत्थर को खींच रहे हों। कमरे की हवा और भारी हो गई। पर्दा अपने आप ऊपर की तरफ खिंचने लगा, जैसे बाहर से कोई उसे पकड़ कर उठा रहा हो। नीरा आँखें फाड़कर सीधे खिड़की की तरफ देख रही थीं।
नीरा के बाल अब पर्दे में गायब हो चुके थे – जैसे खिड़की के बाहर कोई उन्हें मुट्ठी में जकड़े हुए हो और पूरे कमरे से बाहर झोंकना चाहता हो। दीपक ने पूरी ताकत से चिल्लाया –
“मदद!! कोई है!! Help!!”
कुछ ही पलों में बगल वाले कमरों के लोग दरवाज़ा पीटने लगे। मैनेजर दौड़ता हुआ आया, स्टाफ के दो लड़के पीछे। दरवाज़ा खोलते ही जो दृश्य उनके सामने था, उसे देखकर दोनों लड़के वहीं जड़ हो गए। कमरे के बीच में नीरा हवा में आधा उठी हुई, बाल खिड़की की दिशा में तने हुए, दीपक उन्हें पकड़कर पीछे खींच रहे, और पूरे bed की लकड़ी कर्कश आवाज़ के साथ घिसटती जा रही थी।
मैनेजर ने तुरंत दीपक की मदद की। फिर दो और लोग उनके हाथ–पैर पकड़ने लगे। चार–पाँच लोगों की पूरी ताकत एक पतली सी औरत के शरीर को पकड़ने में लग रही थी… पर फिर भी वे किसी अदृश्य ताकत के सामने कमज़ोर दिख रहे थे। नीरा के मुँह से सिर्फ़ एक ही वाक्य बार–बार निकल रहा था – “वो मुझे ले जाएगा… वो मुझे खींच रहा है… बचा लो… बचा लो…”
नीरा की आँखों में डर नहीं, मौत की छाया दिख रही थी।
दीपक को अचानक अपनी माँ की बात याद आई – “डर लगे तो सिर्फ़ अपने ईश्वर का नाम लेना, कोई भी बुरी चीज़ तुम्हें छू नहीं सकेगी।” उन्होंने काँपते हुए होंठों से अपना इष्ट मंत्र जपना शुरू किया। एक हाथ से नीरा की कलाई थामी, दूसरे हाथ से उनका सिर पकड़कर बार–बार वही मंत्र दीपक दोहराता रहा।
कमरा जैसे भूकंप में हिल रहा था। पर्दा अब खिड़की से आधा उखड़ चुका था। ऐसा लग रहा था किसी भी पल खिड़की का शीशा टूटेगा और नीरा का शरीर सीधे बाहर काले अंधेरे में जा गिरेगा। थोड़ी–थोड़ी देर में नीरा का शरीर झटके खाकर ऊपर उठता, फिर bed पर गिरता। और नीरा के मुख से अजीब–अजीब शब्द निकलते, कभी किसी और भाषा जैसे, कभी सिर्फ़ चीखों जैसे। मैनेजर और बाकी लोग पूरा ज़ोर लगाकर उस अदृश्य खिंचाव से उन्हें वापस खींच रहे थे। ये सब कितनी देर चला – किसी को सही–सही याद नहीं।
किसी को लगा ये बस पाँच मिनट थे, किसी को लगा ये पूरी रात जैसे खिंच गई हो। पर एक बात सबको याद है – जैसे ही सुबह की पहली हल्की–सी रोशनी perde के किनारे से कमरे में दाख़िल हुई, नीरा का शरीर अचानक बिल्कुल ढीला हो गया। बाल नीचे गिर पड़े। हवा की भारीपन कम हो गई। bed हिलना बंद।
कमरे में एकदम सन्नाटा। नीरा बेहोश थी, पर उनकी साँसें चल रही थीं। दीपक ने रोते–रोते उनके माथे को चूमा, फिर खिड़की की ओर देखा। खिड़की बंद थी, पर उसके शीशे पर अंदर की तरफ हल्का–सा धुँधला निशान था,
जैसे किसी ने वहाँ से हाथ लगा–लगाकर किसी को खींचने की कोशिश की हो।
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बाद की सुबह – थकान, सच और खाली पड़ा गेस्ट हाउस
कुछ घंटों बाद जब नीरा होश में आईं, उन्हें पिछली रात बस इतना याद था – एक भयानक ठंड, बालों में किसी की अंगुलियाँ, बाहर से आती धीमी खींचने की ताकत और कब्रिस्तान से उठती हुई सैकड़ों फुसफुसाहटें – जो कह रही थीं – “एक बार आ जाओ… बस एक बार… बाकी हम देख लेंगे…”
नीरा के शरीर में इतनी कमजोरी थी कि वे खड़ी तक नहीं हो पा रहीं थीं। दीपक ने उन्हें और रिषा को पकड़कर तुरंत वापस घर ले जाने का फैसला किया। उन्होंने कमरे में दूसरी रात रुकने से साफ़ इनकार कर दिया। checkout के समय
मैनेजर ने सिर्फ़ इतना कहा – “मैंने आपको कई बार कहा था, सर… ये कमरा अकेले रहने वालों को कभी परेशान नहीं करता। लेकिन जब भी कोई औरत खुले बालों के साथ खिड़की के सामने खड़ी हुई है… उसने किसी–न–किसी को अपने साथ कब्रों के बीच लिटाने की कोशिश ज़रूर की है।”
दीपक ने उस गेस्ट हाउस में फिर कभी बुकिंग नहीं कराई। कुछ साल बाद शांति निवास गेस्ट हाउस पूरी तरह बंद हो गया। कहा जाता है, पीछे की दीवार गिरने के बाद कब्रिस्तान की तरफ़ से आती हवा और भी तेज़ हो गई, और कमरे 17 की खिड़की किसी भी कील या कुंडी से बंद नहीं रह पाती थी। अब वो इमारत वीरान पड़ी है।
पर रात के समय अगर कोई काँच के टूटे हुए हिस्सों से अंदर झाँकने की हिम्मत करे, तो कभी–कभी कमरा 17 की जगह पर एक परछाईं खड़ी दिखती है – लंबे खुले बालों वाली, जो खिड़की की तरफ़ मुँह करके हल्के–हल्के अपनी उँगली से इशारा कर रही होती है…
“बस खिड़की खोल दो, मैं… बस तुम्हारे बालों से थोड़ा खेलना चाहती हूँ…” और अगर कभी तुम किसी पुराने शहर में किसी ऐसी इमारत में रुको जिसकी खिड़की के सामने सीधे कब्रिस्तान दिखता हो, तो एक बात याद रखना – शाम के बाद खिड़की मत खोलना… और अगर खोल ही दो… तो खुले बालों के साथ उस खिड़की के सामने कभी मत खड़े होना।
अगर ये कहानी पसंद आई तो इसे भी मिस मत करो:
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ये एक fictional हिंदी हॉरर स्टोरी है, लेकिन इसे इस तरह लिखा गया है कि ये बिल्कुल real incident जैसी महसूस हो।
